कितना दुःख,कितना व्योग इस जीवन मेंअब भी बाक़ी हैं
काँटो की माला कितनी इस उपवन में अब भी बाकी हैं..
गांव त्यागकर,माना हमने बस विसपान किया,
कुछ शीतलता किन्तु तेरे इस चन्दन में अब भी बाकी हैं
कोई कठिनता कोई कष्ट जीवन से पार नही हैं,
एक सरलता हर उलझन में मित्रो अब भी बाकी हैं.
उसकी ना में यू तो स्वप्न सारे स्वर्ग सिधार गये,
अमिट छवि सी,एक मन मंदिर में अब भी बाकी हैं
सिंदूर और श्रृंगार नया हैं,बातो का भी व्यवहार नया हैं,
मेरी कविता,पर तेरे कंगन की खनखन में अब भी बाकी हैं.....